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कैल्विनवाद, आर्मिनवाद और परमेश्वर कि तीन इच्छाएं

आहा! परमेश्वर का धन और बुद्धि और ज्ञान क्या ही गंभीर है! उसके विचार कैसे अथाह, और उसके मार्ग कैसे अगम हैं!

प्रभु कि बुद्धि को किस ने जाना या उसका मंत्री कौन हुआ?

या किस ने पहिले उसे कुछ दिया है जिस का बदला उसे दिया जाए।

क्योंकि उस की ओर से, और उसी के द्वारा, और उसी के लिये सब कुछ है: उस की महिमा युगानुयुग होती रहे: आमीन. (रोमियॉं 11:33-36)

उपर्युक्त आयतों में हम निम्न मोटे-मोटे बिंदु पाते हैं:

1. परमेश्वर का धन, बुद्धि और ज्ञान अत्यंत गंभीर है. सच में वो अपार रूप से गंभीर हैं.

2. उसके विचार अथाह हैं.

3. उसके मार्ग अगम हैं अर्थात उसके काम करने के तरीके हमारी समझ में कभी पूरी तरह नहीं आ सकते.

4. उसकी बुद्धि अनंत है और उसको कोई पूरी तरह नहीं जान सकता.

5. हम सीमित बुद्धि वाले मनुष्यों को उसको कैसा होना चाहिए या कैसे काम करना चाहिए ये सलाह देने कि कोशिश नहीं करनी चाहिए.

6. इस ब्रहम्माण्ड में सब कुछ उसी कि ओर से, उसी के द्वारा ओर उसी के लिए हो रहा है.

7. और जो कुछ भी अच्छा ओर बुरा इस दुनिया में हो रहा है वो सब अंततः उसी कि महिमा के लिए हो रहा है.

उपर्युक्त आयतों के मतलब को समझ कर या उन पर मनन करके हम रोमांचित और अभिभूत हो जातें हैं, क्योंकि हम देखते हैं कि परमेश्वर का चरित्र, उसकी बुद्धि, उसके काम करने के तरीके: ये सब महान है. परमेश्वर तो अथाह है; उसकी थाह नहीं पाई जा सकती. हमें बाइबल में कुछ चीज़ें दी हुई है जिनको मनुष्य का सीमित दिमाग कभी पूरी तरह नहीं समझ सकता। इन चीज़ों को हम विश्वास से ग्रहण करते हैं. हम कहते हैं की मेरे समझ में नहीं आ रहा कि ऐसा कैसे हो सकता है, पर यह सच है क्योंकि बाइबल में लिखा है. परमेश्वर कि त्रिएकता कि शिक्षा एक ऐसी ही शिक्षा है, जो हम सीमित दिमाग से कभी पूरी तरह नहीं समझ सकते, परन्तु हम इसके सामने समर्पण करतें हैं.

जब हम बाइबल कि इज़्ज़त करते हैं और विनम्र और  आराधनामय ह्रदय से इसको ग्रहण करते हैं, तो धीरे धीरे इसकी समझ में बढ़ते हैं. ऐसी ही एक और चीज़ हम बाइबल में पाते हैं और शुरुआत में हम इसको पढ़ कर चकरा जातें हैं कि ये कैसे संभव है. पर जो बाइबल के सामने समर्पण कर देता है, परमेश्वर उनको अपनी बातें और भी अच्छी रीति से समझाता है. पर दुर्भाग्य कि बात है कि कुछ लोग अपने मन को मोटा कर लेते हैं और बाइबल के इस अथाह और अगम्य  परमेश्वर को अस्वीकार करके, बाइबल में से ही कुछ आयतें सन्दर्भ के बाहर लेके मनुष्य कि समानता और स्वरुप में एक ईश्वर बना लेते हैं. आर्मिनवादी भी ऐसा ही करते हैं; कैल्विनवादियों ने इनकी झूठीं शिक्षाओं का खंडन किया है और बाइबल कि परमेश्वर केंद्रित शिक्षाएं दी.

(कैल्विनवाद और आर्मिनवाद की परिभाषाएँ जानने के लिए लिंक पर क्लिक करें: https://logosinhindi.com/arminians-inconsistent-theology-and-prayer-in-hindi/)

नीचे मैं परमेश्वर की तीन इच्छाओं पर प्रकाश डालूंगा और  कैल्विनवाद और आर्मिनवाद के बीच के तनाव को स्पष्ट करूँगा. जी हाँ, परमेश्वर की तीन इच्छाएं हम बाइबल में देखते हैं. परमेश्वर हम सीमित लोगों के लिए बहुत ही जटिल और अथाह हैं. हम इनको पूरी तरह नहीं समझ पाएंगे, परन्तु वचन के सामने समर्पण करके धीरे धीरे इनकी समझ में बढ़ेंगे.

1.परमेश्वर की संप्रभु इच्छा:

कैल्विनवाद, आर्मिनवाद और परमेश्वर कि तीन इच्छाएं

परमेश्वर की संप्रभु इच्छा उस इच्छा को कहते हैं जिसका कोई प्रतिरोध नहीं कर सकता. यह इच्छा परमेश्वर की भाग्य निर्धारण सम्बन्धी इच्छा है. परमेश्वर ने इस इच्छा के अंतर्गत ही सम्पूर्ण मानव इतिहास का भाग्य निर्धारण जगत की उत्पत्ति से पहले अनंत में ही कर दिया था. जो कुछ भी अच्छा और बुरा इस दुनिया में हो रहा है अंततः परमेश्वर के लिए और उसकी महिमा के लिए ही हो रहा है. इस इच्छा को और समझने के लिए हम दो उदहारण लेंगे:

उदाहरण 1:

बाइबल स्पष्ट रीति से कहती है की प्रभु यीशु मसीह परमेश्वर के पूर्वनिर्धारण के अंतर्गत मारा गया. परमेश्वर की इस संप्रभु इच्छा को कोई रोक नहीं सकता था. यह होना ही था, परन्तु क्या यहूदा इस्करियोती, पिलातुस, फरीसी आदि इस पाप के लिए जिम्मेदार नहीं. हैं, वे ही जिम्मेदार है. परमेश्वर सिर्फ भाग्य निर्धारण करता है; पाप के जिम्मेदार मनुष्य और शैतान ही होतें है. आप परमेश्वर की सम्प्रभुता और मनुष्य की जिम्मेदारी को समझने के लिए इन आयतों को पढ़िए:

उसी को जब वह परमेश्वर की ठहराई हुई योजना और पूर्वज्ञान के अनुसार पकड़वाया गया, तो तुम ने अधमिर्यों के हाथ से उसे क्रूस पर चढ़वा कर मार डाला। (प्रेरितों 2:23)

और तुम ने जीवन के कर्ता को मार डाला. (प्रेरितों  3:15)

क्योंकि सचमुच तेरे सेवक यीशु के विरोध में, जिस तू ने अभिषेक किया, हेरोदेस और पुन्तियुस पीलातुस भी अन्य जातियों और इस्त्राएलियों के साथ इस नगर में इकट्ठे हुए। कि जो कुछ तेरे हाथ (तेरी सामर्थ) और तेरे उद्देश्य ने पूर्वनिर्धारित किया था वही करें। (प्रेरितों  4:27-28) 

उदाहरण 2:

और अभी तक तो बालक जन्मे थे, और उन्होंने कुछ भला या बुरा किया था कि उस ने कहा, कि जेठा छुटके का दास होगा।

इसलिये कि परमेश्वर की मनसा जो उसके चुन लेने के अनुसार है, कर्मों के कारण नहीं, परन्तु बुलाने वाले पर बनी रहे।

जैसा लिखा है, कि मैं ने याकूब से प्रेम किया, परन्तु एसौ को अप्रिय जाना॥ (रोमियों 9:11-13)

आपने देखा कि उन जुड़वां बच्चों के पैदा होने से पहले ही, परमेश्वर ने याकूब को चुन लिया और एसाव को नहीं?

क्योंकि वह मूसा से कहता है, “मैं जिस किसी पर दया करना चाहूँ, उसी पर दया करूँगा, और जिस किसी पर कृपा करना चाहूँ उसी पर कृपा करूँगा। इसलिए यह तो चाहनेवाले की, दौड़नेवाले की परन्तु दया करनेवाले परमेश्वर की बात है। (रोमियों 9:15–16)

यहां आपने देखा कि परमेश्वर जिस किसी को भी बचाना चाहते हैं बचाते हैं और दूसरों को अस्वीकृत कर देतें हैं।

परमेश्वर ने भाग्य निर्धारण कर रखा है की कौन स्वर्ग जायेगा और कौन नरक. परमेश्वर किसी का कर्जदार नहीं है. यदि वो सबको नरक भेज दे, तो भी वो धर्मी ओर न्यायी ही रहेगा, क्योंकि हम अपने पापों के लिए जिम्मेदार हैं ओर नरक के ही योग्य हैं. परमेश्वर ने कुछ लोगों को चुन लिया ओर बाकी को छोड़ दिया. जो स्वर्ग जातें हैं उनको अनुग्रह मिला (जिसके वो योग्य ना थे). जो नरक जातें हैं उनको न्याय मिला (जिसके वो योग्य थे). किसी को भी अन्याय नहीं मिला.

उदहारण 3

इसलिये आओ मसीह की शिक्षा की आरम्भ की बातों को छोड़ कर, हम सिद्धता की ओर आगे बढ़ते जाएं ……………….. और यदि परमेश्वर चाहे, तो हम यही करेंगे। (इब्रानियों 6:1-3)

यहाँ पर हम देखते हैं की हम सिद्धता की और कितना बढ़ेंगे अर्थात कितनी आत्मिक उन्नति करेंगे- ये परमेश्वर की संप्रभु इच्छा पर ही निर्भर करता है. उसी की संप्रभु इच्छा के अन्तर्गत कोई तीस, कोई साठ और कोई नब्बे गुना फल लाएगा. कोई उसके इस पूर्व निर्धारण से ज्यादा आत्मिक उन्नति नहीं कर सकता.

(परमेश्वर की इस इच्छा के बारे में और भी जानने के लिए आप इन दो लिंक्स पर क्लिक कीजिये: https://logosinhindi.com/compatibilism-in-hindi/)

2. परमेश्वर की प्रकट इच्छा:

कैल्विनवाद, आर्मिनवाद और परमेश्वर कि तीन इच्छाएं

परमेश्वर की प्रकट इच्छा उसकी आज्ञाएं हैं. वो अपने पवित्र चरित्र के अनुसार लोगों को आज्ञाएं देता है. दस आज्ञाएं इसी का उदहारण है. आइये हम परमेश्वर की प्रकट या आदेशात्मक इच्छा को तीन उदाहरणों से समझें और साथ ही साथ उनकी तुलना ऊपर दिए गए संप्रभु इच्छा के तीन उदाहरणों से करें:

उदहारण 1:

 झूठे मुकद्दमे से दूर रहना, और निर्दोष और धर्मी की हत्या करना, क्योंकि मैं दुष्ट को निर्दोष ठहराऊंगा। (निर्गमन 23:7)

परमेश्वर की सम्पूर्ण मानव जाती के लिए प्रकट या आदेशात्मक इच्छा यह है की कोई किसी निर्दोष और धर्मी व्यक्ति की हत्या ना करें. परन्तु जैसा की हमने ऊपर देखा परमेश्वर ने अपनी संप्रभु इच्छा के अंतर्गत जगत की उत्पत्ति से पहले ही  अपने चुने हुओं को बचाने के लिए यीशु मसीह की हत्या की योजना बना ली थी और यह निश्चित कर दिया था की ऐसा होगा.

उदाहरण 2:

परमेश्वर हर जगह हर मनुष्य को मन फिराने की आज्ञा देता है। (प्रेरितों 17:30)

परमेश्वर की सम्पूर्ण मानव जाती के लिए प्रकट या आदेशात्मक इच्छा यह है की सब उद्धार पाने के लिए पश्चाताप करें पर हमने ऊपर देखा की परमेश्वर ने अपनी संप्रभु इच्छा के अनुसार यह निर्धारित कर दिया कि कौन पश्चाताप करके उद्धार पायेगा और कौन नहीं. इसके लिए एक और आयत आप देखिये:

जितने अनन्त जीवन के लिये ठहराए गए थे, उन्होंने विश्वास किया। (प्रेरितों 13:48)

उदाहरण 3:

पर जैसा तुम्हारा बुलाने वाला पवित्र है, वैसे ही तुम भी अपने सारे चाल चलन में पवित्र बनो। क्योंकि लिखा है, कि पवित्र बनो, क्योंकि मैं पवित्र हूं। (1 पतरस 1:25-26)

इसलिये चाहिये कि तुम सिद्ध बनो, जैसा तुम्हारा स्वर्गीय पिता सिद्ध है॥ (मत्ती 5:48)

परमेश्वर कि प्रकट और आदेशात्मक इच्छा यह है कि हम पूरी तरह पवित्र हो जाएँ, परन्तु ऊपर उदाहरण तीन में हमने देखा कि परमेश्वर ने अपनी संप्रभु इच्छा के अन्तर्गत यह निर्धारित कर रखा है कि आत्मिक उन्नति में अर्थात पवित्रता में कौन कितना बढ़ेगा.

3.परमेश्वर की स्वाभाविक इच्छा:

कैल्विनवाद, आर्मिनवाद और परमेश्वर कि तीन इच्छाएं

परमेश्वर कि स्वाभाविक इच्छा को उसकी परोपकारी इच्छा भी कहतें हैं. इस इच्छा का अर्थ होता है कि परमेश्वर सबके प्रति सद्भावना रखता है. वह किसी के प्रति दुर्भावना नहीं रखता. परमेश्वर स्वाभाविक रूप से परोपकार करता है. वह किसी का बुरा नहीं चाहता. उसकी दया के काम सम्पूर्ण सृष्टि में देखे जा सकतें हैं. वह धर्मियों और अधर्मियों दोनों के लिए बारिश बरसाता है और दोनों के लिए सूरज उगाता है (मत्ती 5:45). परमेश्वर कि स्वाभाविक इच्छा को समझने के लिए इस आयत को देखिये:

प्रभु यहोवा की यह वाणी है, क्या मैं दुष्ट के मरने से कुछ भी प्रसन्न होता हूँ? क्या मैं इस से प्रसन्न नहीं होता कि वह अपने मार्ग से फिरकर जीवित रहे?” (यहेजकेल 18:23)

वह अधर्मियों कि मृत्यु से प्रसन्न नहीं होता. कहने का अर्थ है कि परमेश्वर अपने दुश्मनों के विनाश से कोई पापमय आनंद नहीं उठाता. परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि अधर्मी का विनाश करके और न्याय कि स्थापना करने में उसे आनंद नहीं आता. उसे पवित्र आनंद कि अनुभूति होती है. यहाँ तक कि वह स्वर्ग में संतों को भी अधर्मियों के विनाश और न्याय कि स्थापना के लिए आनंद मानाने कि आज्ञा देता है.

और जैसे अब यहोवा की तुम्हारी भलाई और बढ़ती करने से हर्ष होता है, वैसे ही तब उसको तुम्हें नाश वरन सत्यानाश करने से हर्ष होगा. (व्यवस्थाविवरण 28:63)

हे स्वर्ग, और हे पवित्र लोगों, और प्रेरितों, और भविष्यद्वक्ताओं, उस पर आनन्द करो, क्योंकि परमेश्वर ने न्याय करके उस से तुम्हारा पलटा लिया है॥ (प्रकाशितवाक्य 18:20)

क्या परमेश्वर के चरित्र में कोई विरोध या विसंगति है. नहीं बिल्कुल नहीं. परमेश्वर का दुष्टों कि मृत्यु पर प्रसन्न होना भी उसकी स्वाभाविक या परोपकारी इच्छा का ही हिस्सा है. क्या आपको किसी हत्यारे और बलात्कारी को मृत्यु दंड दिए जाने पर हर्ष नहीं होता?

उपसंहार:

आर्मिनवादी बाइबल में से परमेश्वर कि प्रकट और स्वाभाविक इच्छा से सम्बंधित आयतें उठाकर यह कहते हैं कि परमेश्वर तो सब का उद्धार करने कि कोशिश कर रहा है पर मनुष्य नहीं मान रहा. ये लोग परमेश्वर कि संप्रभु इच्छा से सम्बंधित हजारों आयतों को या तो अनदेखा कर देते हैं या उनमे से कुछ को लेकर उनको तोड़ते मरोड़ते हैं. और इनका उद्देश्य क्या है? यही सिद्ध करना कि परमेश्वर संप्रभु और भाग्य निर्धारण करने वाला नहीं है, परन्तु मनुष्य संप्रभु है और अपने भाग्य का विधाता है. इनके अनुसार निम्नांकित और ऐसी ही हजारों  आयतें बदल देनी चाहिए:

बाइबल कि आयत: मनुष्य के कदम यहोवा की ओर से दृढ़ होतें हैं. (भजन 37:23)

आर्मिनवादी आयत: यहोवा के कदम मनुष्य  की ओर से दृढ़ होतें हैं.

बाइबल कि आयत:  “जो (परमेश्वर) अपनी इच्छा के मत के अनुसार सब कुछ करता है.” (इफिसियों  1:11)

आर्मिनवादी आयत:  “जो (परमेश्वर) इंसान से पूछ-पूछ कर सब कुछ करता है.”

बाइबल कि आयत:  “मैं तो अन्त की बात आदि से और प्राचीनकाल से उस बात को बताता आया हूं जो अब तक नहीं हुई। मैं कहता हूं, मेरी योजना  स्थिर रहेगी और मैं अपनी (संप्रभु) इच्छा को पूरी करूंगा।”(यशायाह 46:10)

आर्मिनवादी आयत:  “मैं तो अन्त की बात आदि से और प्राचीनकाल से उस बात को बताता आया हूं जो अब तक नहीं हुई। मैं कहता हूं, मनुष्य कि योजना  स्थिर रहेगी और मैं मनुष्य कि (संप्रभु) इच्छा को पूरी करूंगा।”

बाइबल कि आयत: “मैं जिस किसी पर दया करना चाहूँ, उसी पर दया करूँगा, और जिस किसी पर कृपा करना चाहूँ उसी पर कृपा करूँगा। इसलिए यह न तो चाहनेवाले की, न दौड़नेवाले की परन्तु दया करनेवाले परमेश्वर की बात है।“ (रोमियों 9:15–16)

आर्मिनवादी आयत:  “मैं नरक के योग्य परन्तु स्वतंत्र इच्छाधारी पापी मनुष्य का कर्जदार हूँ। इसलिए यह दया करने वाले परमेश्वर की बात नहीं; यह तो चाहनेवाले और  दौड़नेवाले मनुष्य की बात है।”

इस विषय को और भी अधिक समझने के लिए आप निम्न लेख भी पढ़ें:

https://logosinhindi.com/compatibilism-in-hindi/

https://logosinhindi.com/whose-choice-saved-you-yours-or-gods-hindi/

https://logosinhindi.com/gods-sovereignty-in-salvation/

पश्च-लेख (P.S)

कैल्विनवाद, आर्मिनवाद और परमेश्वर कि तीन इच्छाएं

संप्रभु इच्छा और प्रकट इच्छा पर एक टिपण्णी:

परमेश्वर की संप्रभु इच्छा हमेशा हर जगह पूरी हुई है और हो रही है और होगी. आप इन आयतों के द्वारा यह समझ सकते हैं:

यहोवा आसमान में, पृथ्वी पर, समुद्र में और गहरे समुद्र में भी वही करता है जो वो चाहता है. (भजन 135:6)

मैं जानता हूँ कि तू सब कुछ कर सकता है, और तेरी युक्तियों में से कोई रुक नहीं सकती। (अय्यूब 42:2)

यहोवा ने सब वस्तुएं विशेष उद्देश्य के लिये बनाईं हैं, वरन दुष्ट को भी विनाश के लिये बनाया है। (नीतिवचन 16:4)

सेनाओं के यहोवा ने यह शपथ खाई है, नि:सन्देह जैसा मैं ने ठाना है, वैसा ही हो जाएगा, और जैसी मैं ने युक्ति की है, वैसी ही पूरी होगी. (यशायाह 14:24)

क्योंकि सेनाओं के यहोवा ने युक्ति की है और कौन उसका टाल सकता है? उसका हाथ बढ़ाया गया है, उसे कौन रोक सकता है? ((यशायाह 14:27)

क्योंकि उस की ओर से, और उसी के द्वारा, और उसी के लिये सब कुछ है: उस की महिमा युगानुयुग होती रहे: आमीन. (रोमियों  11:36)

क्योंकि राज्य, सामर्थ और महिमा तेरी ही है. (मत्ती 6:13)

प्रभु की प्रार्थना की आखरी पंक्ति में लिखा है की राज्य, सामर्थ और महिमा सदा उसी की है. यह पंक्ति उसकी सम्प्रभुता को दर्शाती है.  परन्तु इस प्रार्थना की  दूसरी पंक्ति कहती है:

तेरा राज्य आये; तेरी इच्छा पृथ्वी पर वैसे ही पूरी हो जैसे स्वर्ग में पूरी होती है.” (मत्ती 6:10)

हमने तो ऊपर पढ़ा की राज्य पहले से उसी का है और उसकी इच्छा आसमान में, पृथ्वी पर और समुद्र में- हर जगह पूरी होती है. फिर किस अर्थ में पृथ्वी पर उसकी इच्छा पूरी नहीं हो रही? इसका उत्तर आसान है जो की आप समझ भी गए होंगे. जी हाँ, पृथ्वी पर उसकी प्रकट या आदेशात्मक  इच्छा पूरी नहीं हो रही है और उसी के लिए प्रभु ने हमे प्रार्थना करना सिखाया है.

परमेश्वर प्रकट या आदेशात्मक इच्छा के आधार पर अविश्वासियों का न्याय करके उन्हें नरक में भेजेगा, क्योंकि वो अपने पाप  के कारण इसी योग्य हैं. और इसी इच्छा के आधार पर विश्वासियों का न्याय करके उन्हें स्वर्ग में छोटा या बड़ा बनाएगा.

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