यीशु ने उन्हें उत्तर दिया, “परमेश्वर में विश्वास रखो।
मैं तुमसे सत्य कहता हूँ यदि कोई इस पहाड़ से यह कहे, ‘तू उखड़ कर समुद्र में जा गिर’ और उसके मन में किसी तरह का कोई संदेह न हो बल्कि विश्वास हो कि जैसा उसने कहा है, वैसा ही हो जायेगा तो उसके लिये वैसा ही होगा।
इसीलिये मैं तुम्हें बताता हूँ कि तुम प्रार्थना में जो कुछ माँगोगे, विश्वास करो वह तुम्हें मिल गया है, वह तुम्हारा हो गया है। (मरकुस 11:22-24)
मरकुस 11 की चौदहवीं आयत में हम देखते हैं कि यीशु मसीह एक अंजीर के पेड़ पर शाप के शब्द बोलते हैं और बीसवीं आयात में वो पेड़ पतरस के द्वारा सूखा पाया जाता है। यीशु मसीह के शब्दों में जीवन और मृत्यु की सामर्थ है। वो जो बोलता है वो हो जाता है।
आयत 22:
यीशु ने उन्हें उत्तर दिया, “परमेश्वर में विश्वास रखो।
पतरस ने जब सूखे पेड़ को देख करआश्चर्य जताया तो यीशु मसीह उसे और बाकी चेलों को कहता है, “परमेश्वर में विश्वास करो।” ध्यान दीजिए हमे परमेश्वर पर विश्वास करना है अपने शब्दों या प्रार्थनाओं पर नहीं। बाइबिल हमे कहीं भी प्रार्थनाओं और शब्दों पर विश्वास रखने के लिए नहीं कहती। बाइबिल हमे परमेश्वर और प्रार्थना के विषय में दिए उसके वादों पर विश्वास करने को कहती है। परमेश्वर ने अपनी अनंत बुद्धी में अपनी सम्प्रभु योजनाओं (sovereign plans) को प्रार्थना के द्वारा क्रियान्वित करना चुना है।
ऐसा नहीं है कि हमारे प्रार्थना करने से वो क्रियान्वित (activate) हो जाता है या उसको करना पड़ता है। वो प्रार्थना के द्वारा काम करता है क्योंकि वो करना चाहता है और उसी ने इस तरह से काम करने का निर्णय किया है। वैसे भी प्रार्थना की परिभाषा होती है कुछ मांगना – मालिक चाहे तो दे दे और ना चाहे तो मना कर दे। आपने-मैंने कोई कर्जा थोड़े दे रखा है परमेश्वर को जिसके बदले में उसे काम करना ही पड़ेगा (रोमियों 11:35)। ध्यान रखें प्रार्थना मांगना है, आज्ञा देना या अधिकार जताना नहीं।
आयत 23:
मैं तुमसे सत्य कहता हूँ: यदि कोई इस पहाड़ से यह कहे, ‘तू उखड़ कर समुद्र में जा गिर’ और उसके मन में किसी तरह का कोई संदेह न हो बल्कि विश्वास हो कि जैसा उसने कहा है, वैसा ही हो जायेगा तो उसके लिये वैसा ही होगा।
यीशु मसीह यहां अक्षरक्ष: (literally) बात नहीं कर रहे हैं। वो अलंकारिक भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, वैसे ही जैसे यूहन्ना 6:53 में उन्होंने कहा था कि मेरा मांस खाये बिना कोई जीवन नहीं पा सकता। क्या वो वास्तव में अपना मांस खाने की बात कर रहे थे, जैसा कि कैथोलिक लोग कहते है? नहीं ना? वहां हमने सन्दर्भ के हिसाब से अर्थ निकाला कि जो कोई यीशु मसीह की मृत्यु पर विश्वास नहीं करता वो जीवन नहीं पा सकता। जकर्याह 4:7 में ज़रुब्बाबेल ने जब कहा कि ये पहाड़ टल जाएगा तो उसका मतलब अक्षरक्ष: पहाड़ नहीं था, बल्कि उनके सामने आने वाली चुनौती थी। इसी तरह से यीशु मसीह ने कहा कि हम भी परमेश्वर पर यदि विश्वास करें तो परमेश्वर की महिमा के और हमारे पवित्रीकरण के मार्ग में आने वाली हर बाधा और चुनौती पर हम विजय पाएंगे।
आयत 24:
इसीलिये मैं तुम्हें बताता हूँ कि तुम प्रार्थना में जो कुछ माँगोगे, विश्वास करो वह तुम्हें मिल गया है, वह तुम्हारा हो गया है। (मरकुस 11:22-24)
- बहुत से लोग ऐसे कहते हैं कि हम कुछ भी मांगेंगे हमे मिलेगा। यीशु मसीह को कोई मंशापूरण देवता या अपना कोई नौकर है क्या? वो आसमान में, धरती पर, समुद्र में और गहरे समुद्र में वही करता जो वो चाहता है (भजन सहिंता 135:6)। वो सबकुछ अपनी ही इच्छा की मंत्रणा के हिसाब से करता है (इफिसियों 1:11 ब)।
- यहाँ जो कुछ का मतलब सबकुछ नहीं है। मान लीजिए आप किसी रेस्टोरेंट में खाना खाने गए और आप ने अपने मित्र से बोला जो कुछ तुम चाहो मंगा लो। जो कुछ का मतलब यहां सब कुछ नहीं है। जो कुछ का मतलब मेन्यू में जो है उसमें से कुछ भी है। जो मेन्यू में है उसके बाहर आपका मित्र कुछ भी नहीं मंगवा सकता। इसी तरह से परमेश्वर ने भी निम्नांकित आयतों में आपके मांगने और उसके देने पर सीमाएं बांध दी है:
तुम मांगते हो और पाते नहीं, इसलिये कि बुरी इच्छा से मांगते हो, ताकि अपने भोग विलास में उड़ा दो। (याकूब 4:3)
यदि हम कोइ सी भी चीज़ परमेश्वर की महिमा के अलावा किसी और उद्धेश्य से मांगे तो वो हमें नहीं मिलेगी। भौतिक वस्तुएं तो दूर की बात है यदि हम परमेश्वर की महिमा के अलावा किसी और उद्धेश्य से पापों पर विजय या पवित्रता भी मांगे तो नहीं मिलेगी। परमेश्वर जो भी करता है वो अपनी महिमा के लिए करता है।
और हमें उसके सामने जो हियाव होता है, वह यह है; कि यदि हम उस की इच्छा के अनुसार कुछ मांगते हैं, तो हमारी सुनता है।
और जब हम जानते हैं, कि जो कुछ हम मांगते हैं वह हमारी सुनता है, तो यह भी जानते हैं, कि जो कुछ हम ने उस से मांगा, वह पाया है। (1 यूहन्ना 5:14-15)
1 यूहन्ना 5:15 में भी मरकुस 11:24 आयत के जैसी ही भाषा है कि जो कुछ हमने मांगा है वो पाया भी है, परन्तु आयात 14 हमारे मांगने ओर उसके देने को सीमित कर देता है। वहां लिखा है कि यदि हम उसकी इच्छा के अनुसार माँगे तो वो हमें देता है, अन्यथा नहीं। तो हमारा विश्वास क्या होना चाहिए कि हम जो कुछ मांगेंगे वो हमें मिलेगा? नहीं। कदापी नहीं। हमारा विश्वास यह होना चाहिए:
हमे उसके सामने हियाव (confidence) है कि जो हम उसकी इच्छा से मांगेंगे वो हमें मिलेगा। (1 यूहन्ना 5:14)
यीशु मसीह ने हमे उसके नाम से प्रार्थना करने को कहा है। यीशु मसीह के नाम मे प्रार्थना करने का मतलब ये है:
- परमेश्वर के चरित्र के अनुसार मांगना। परमेश्वर हमे अपने चरित्र के विपरीत जाकर हमारी स्वार्थी और विनाशकारी इच्छाओं को पूरा नहीं करेगा।
- यीशु मसीह के क्रूस पर किये काम के आधार पर माँगना। हम लोग पापी है और परमेश्वर से नरक के अलावा और कुछ भी पाने के योग्य नहीं हैं। तो जो कुछ भी मिलेगा वो इसलिए क्योंकि यीशु मसीह क्रूस पर हमारे भाग का नरक पी गया।
- परमेश्वर की इच्छा के अनुसार।
जी हाँ, जब भी हम “यीशु मसीह के नाम से” कहकर प्रार्थना खत्म करते हैं तो हमारा यह मतलब होता है:
आपके चरित्र के अनुसार,
यीशु मसीह के क्रूस पर किये काम के आधार पर औऱ
यदि आप की इच्छा है तो।
निष्कर्ष:
- आयत 22 के अनुसार हमारा विश्वास खुद पर या खुद के शब्दों में नहीं परमेश्वर पर होना चाहिए ।
- आयत 23 में कहीं भी नहीं लिखा कि हमे अपनी समस्याओं, बाधाओं या चुनौतियों से बातें करनी या आज्ञा देनी है. वहां दिए गए शब्द (यदि तुम इस पहाड़ से कहो) अक्षरक्षः नहीं परन्तु आलंकारिक हैं.
- आयत 24 में यीशु मसीह प्रार्थना की बात कर रहा है, अर्थात हमे परमेश्वर से बातें करनी है ना कि चुनौतियों से।
तीनों आयतों में परमेश्वर ने हमसे कहीं भी नहीं कहा है कि जो हम कहेंगे या आज्ञा देंगे वो हो जायेगा। तीनो आयतों का किसी भी प्रकार से यह अर्थ नहीं निकाला जा सकता कि हमारे शब्दों में परमेश्वर के समान सृजनात्मक सामर्थ (creative power) होती है और हम अपने सकारात्मक अंगीकार के द्वारा चंगाई, अमीरी आदि अस्तित्व में ला सकते हैं या अपना भाग्य बदल सकते हैं. ऐसा सोचना उद्धंडता, ऐसा बोलना परमेश्वर की निंदा (blasphemy) और ऐसा सीखाना बाइबिल में जोड़ना है जिसके विषय में चेतावनी दी गई है की जो कोई इसमें जोड़ेगा उसकी सजा बड़ा दी जाएगी. (प्रकाशितवाक्य 22:18)