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पवित्रशास्त्र मुख्य रूप से क्या सिखाता है ? (चार्ल्स स्पर्जन प्रश्नोत्तरी-3)

3. पवित्रशास्त्र मुख्य रूप से क्या सिखाता है ?

उत्तर: पवित्र शास्त्र मुख्य रूप से यह सिखाता है कि मनुष्य को परमेश्वर के विषय में क्या विश्वास करना है और मनुष्य के परमेश्वर के प्रति क्या कर्तव्य हैं। (2 तीमुथियुस 1:13; सभोपदेशक 12:13)

साक्षी आयतें:

जो खरी बातें तू ने मुझ से सुनी हैं उनको उस विश्‍वास और प्रेम के साथ, जो मसीह यीशु में है, अपना आदर्श बनाकर रख। (2 तीमुथियुस 1:13)

सब कुछ सुना गया; अन्त की बात यह है कि परमेश्‍वर का भय मान और उसकी आज्ञाओं का पालन कर; क्योंकि मनुष्य का सम्पूर्ण कर्तव्य यही है। (सभोपदेशक 12:13)

व्याख्या: 

आइए, हम निम्न दो शीर्षकों के द्वारा इस प्रश्न के उत्तर कि व्याख्या करेंगे:

  • मनुष्य को परमेश्वर के विषय में क्या विश्वास करना है?
  • मनुष्य के परमेश्वर के प्रति क्या कर्तव्य हैं?

मनुष्य को परमेश्वर के विषय में क्या विश्वास करना है?

दुनिया में परमेश्वर के प्रति बहुत सारे गलत विचार है, जैसे:

  • परमेश्वर है ही नहीं। दुनिया एक बड़े विस्फोट के कारण अस्तित्व में आई और हम बंदरों से आये। (नास्तिकवाद, डार्विनवाद, विकासवाद)
  • परमेश्वर है लेकिन वो संप्रभु और सर्वज्ञानी नहीं है। वो भी हमारी तरह सीख रहा है। (खुला ईश्वरवाद)
  • परमेश्वर सर्वज्ञानी है लेकिन उद्धार में संप्रभु नहीं है। मनुष्य स्वयं अपना भाग्य-विधाता है। (आर्मिनवाद)
  • बहुत सारे ईश्वर हैं। (बहुदेववाद)
  • परमेश्वर और ब्रहम्माण्ड एक ही हैं और अपृथक हैं। (सर्वेश्वरवाद)
  • परमेश्वर एक है, लेकिन त्रिएक नहीं हैं। (इस्लाम )

आज भी लोग परमेश्वर के बारे में अटकलें लगाते ही रहते हैं। आइये देखते हैं ऐसी अटकलों के विषय में किम रिडलबर्गर क्या कहते हैं:

जब कोई व्यक्ति इस कथन के साथ अपनी बात शुरू करता है  “मुझे लगता है कि परमेश्वर ऐसा है …” , तो मुझे तुरंत पता चल जाता है कि इस व्यक्ति को परमेश्वर के बारे में लैश मात्र भी ज्ञान नहीं है। मैं ऐसा इसलिए कह सकता हूं क्योंकि परमेश्वर एक अनंत आत्मा है, जिसका अर्थ है कि हम उसके बारे में तब तक कुछ नहीं जान सकते जब तक कि उसने स्वयं को प्रकट न किया हो, जो वह सृष्टि और अपने वचन के माध्यम से करता है। जबकि सृष्टि हमें बताती है कि परमेश्वर शाश्वत और सर्वशक्तिमान है (रोम। 1:20), सृष्टि हमें यह नहीं बता सकती है कि परमेश्वर त्रिएक है, न ही यह कि उसने अपने अनन्त पुत्र को हमें हमारे पापों से बचाने के लिए भेजा है। इन बातों का ज्ञान हमें परमेश्वर के वचन में ही प्रकट है, जिसमें हम यीशु मसीह के व्यक्तित्व में परमेश्वर के सर्वोच्च प्रकाशन को पाते हैं (यूहन्ना 14:9)। – किम रिडलबर्गर

ए. डब्ल्यू. पिंक भी किम रिडलबर्गर को प्रतिध्वनित करते हुए कहते हैं :

तो क्या अनादि-अनंत परमेश्वर, जो इतना ज्यादा बड़ा है, मनुष्य की छोटी बुद्धि के द्वारा समझा जा सकता है ?  नहीं, बिल्कुल नहीं । पवित्रशास्त्र के परमेश्वर को केवल वे ही जान सकते हैं जिन पर वह स्वयं को प्रकट करे।

परमेश्वर को बुद्धि के द्वारा भी नहीं जाना जा सकता है। “परमेश्वर आत्मा है” (यूहन्ना 4:24), और इसलिए वह केवल आत्मिक रूप से ही जाना जा सकता है। लेकिन गिरा हुआ मनुष्य आत्मिक नहीं है, वह शारीरिक है। वह उन सब चीज़ों के लिए मरा हुआ है, जो आत्मिक है। जब तक वह नया जन्म ना पा ले,अलौकिक रूप से मृत्यु से जीवन में ना लाया जाए और चमत्कारिक रूप सेअन्धकार से ज्योति में ना लाया जाए, तब तक वह परमेश्वर की बातों को देख भी नहीं सकता (यूहन्ना 3:3); समझना तो दूर कि बात हैं (1 कुरि. 2:14)। पवित्र आत्मा को “यीशु मसीह के चेहरे के द्वारा हमारे परमेश्‍वर की महिमा की पहिचान की ज्योति”  (2 कुरिं। 4:6) हमे देने के लिए हमारे अंतर्मन को (बुद्धि को नहीं) प्रकाशमान करना होता है। ए. डब्ल्यू. पिंक (“परमेश्वर के गुण” नामक पुस्तक से)

मनुष्य को परमेश्वर के विषय में यह विश्वास करना है कि परमेश्वर आत्मा है  (यूहन्ना 4:24), जो कि अपने अस्तित्व (निर्गमन 3:14), बुद्धि, सामर्थ (भजन सहिंता 147:5) , पवित्रता  (प्रकाशितवाक्य 4:8), न्याय, भलाई और सच्चाई (निर्गमन 34:6-7) में अनंत (अय्यूब 11:7), अनादि, अमर (भजन 90:2; 1 तीमुथियुस 1:17), और अपरिवर्तनशील (याकूब1:17)  है।

 

मनुष्य के परमेश्वर के प्रति क्या कर्तव्य हैं?

चूँकि मनुष्य परमेश्वर से अपने पाप के कारण दूर है, उसका पहला कर्तव्य तो यह है कि परमेश्वर के द्वारा भेजे एक मात्रा उद्धारकर्ता पर विश्वास करे, ताकि परमेश्वर से उसका रिश्ता जुड़ जाए:

कि तुम उस पर, जिसे उसने भेजा है, विश्‍वास करो। (यूहन्ना 6:29)

यह मेरा प्रिय पुत्र है, जिस से मैं प्रसन्न हूँ : इस की सुनो। मत्ती (17:5)

परमेश्वर एक मसीही को काफी आज्ञाएं देता है, जिनको पूरा करना उसका कर्त्तव्य है।

सब कुछ सुना गया; अन्त की बात यह है कि परमेश्‍वर का भय मान और उसकी आज्ञाओं का पालन कर; क्योंकि मनुष्य का सम्पूर्ण कर्तव्य यही है। (सभोपदेशक 12:13)

“पवित्र बनो, क्योंकि मैं पवित्र हूँ (1 पतरस 1:16)

इसलिये तुम चाहे खाओ, चाहे पीओ, चाहे जो कुछ करो, सब कुछ परमेश्‍वर की महिमा के लिये करो। (1 कुरिन्थियों 10:31)

लेकिन सारी आज्ञाओं का सार इन दो आज्ञाओं में है :

उसने उससे कहा, “तू परमेश्‍वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है। और उसी के समान यह दूसरी भी है कि तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख। ये ही दो आज्ञाएँ सारी व्यवस्था और भविष्यद्वक्‍ताओं का आधार हैं।” (मत्ती 22:37-40)

सारांश प्रार्थना:

मसीहियों की मुख्य प्रार्थना और उद्देश्य  यह होना चाहिए कि “हमारा चाल–चलन प्रभु के योग्य हो, और वह सब प्रकार से प्रसन्न हो, और हम में हर प्रकार के भले कामों का फल लगे (, और हम परमेश्‍वर की पहिचान में बढ़ते जाएं”  (कुलु. 1:10)। ए. डब्ल्यू. पिंक

इस प्रार्थना में परमेश्वर की पहचान में बढ़ने (मनुष्य को परमेश्वर के विषय में क्या विश्वास करना है?) और उसके योग्य चाल चलन रखने (मनुष्य के परमेश्वर के प्रति क्या कर्तव्य हैं?) की अभिलाषा व्यक्त की गई है, इसलिए यह प्रार्थना इस प्रश्न के उत्तर के लिए एक अच्छा सारांश है।

 

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