जब भी कोई धनी व्यक्ति गरीबों की मदद करने के लिए किसी संस्था का निर्माण करता है तो समाज के लोग जरूर उस पर ध्यान देते है और ऐसा व्यक्ति अपने दयावान होने और जरूरतमंदो को देने की वजह से बहुत प्रशंसा पाता है। और ज्यादातर लोग ये ही दिखाना चाहते है कि वो कितने खुले दिल वाले और दयावान है। संसार के लोग संसार से प्रशंसा पाने में लगे रहते है पर क्या परमेश्वर के लोग भी ऐसा ही करते है?
बाइबल बताती है कि सच्चे विश्वासी को जरूरतमंद की सहायता करने के अवसर की खोज में लगा रहना चाहिए (गलतियों 2:10; याकूब 1:27; लूका 19:8।)
लेकिन साथ साथ बाइबल ये भी बताती है:
सावधान रहो! तुम मनुष्यों को दिखाने के लिये अपने धार्मिकता के काम न करो, नहीं तो अपने स्वर्गीय पिता से कुछ भी फल न पाओगे।
(मत्ती 6:1)
जिन यहूदियों का दान देना, प्रार्थना और उपवास करने का उद्देश्य परमेश्वर को महिमा देने के बजाय मनुष्यों से महिमा पाना था उनको बाइबल में फरिसी बताया गया है। हर कोई जो परमेश्वर का विचार ना करके कुछ भी काम करता है वो बाइबल के अनुसार एक फरीसी है, अंदर से कुछ और और बाहर से कुछ और बाइबल इसे पाप बताती है।
हम जानते है कि सब कुछ परमेश्वर के लिए है और उन्हीं की महिमा के लिए सब कुछ बनाया गया है।( रोमियो 11:36, कुलूसियो 1:16) और कुछ भी जो विश्वास से और परमेश्वर की महिमा के लिए नहीं वो पाप है (रोमियो 14:23 b)और परमेश्वर के आगे ग्रहण योग्य नहीं है बल्कि घिनौना और गंदा हैं। (यशायाह 64:6) क्योंकि एक पापी मनुष्य दूसरे पापी मनुष्यों को दिखाकर खुद महिमा पाने के लिए करता है, या फिर खुद को दूसरे से बेहतर दिखाने के लिए , या फिर अपने काम से या पैसों से परमेश्वर के न्याय को खरीदने के लिए , या फिर अपने हृदय की दुष्टता को अपने कामों से शांत करने के लिए करता है। (यिर्मिया 17:9)
हमारा कोई भी काम अगर परमेश्वर के बताए हुए तरीके के खिलाफ है तो फिर वो परमेश्वर की महिमा का कारण कैसे हो सकता है और पिता की तरफ से हमारे लिए प्रतिफल कैसे ला सकता है?
बल्कि हमारा तो हर एक काम उनकी महिमा के लिए ही होना चाहिए। ( 1 कुरूंथियों 10:31,कूलूसियो 3:17,23-24)
“इसलिए जब तू दान करे, तो अपना ढिंढोरा न पिटवा, जैसे कपटी*, आराधनालयों और गलियों में करते हैं, ताकि लोग उनकी बड़ाई करें, मैं तुम से सच कहता हूँ, कि वे अपना प्रतिफल पा चुके। परन्तु जब तू दान करे, तो जो तेरा दाहिना हाथ करता है, उसे तेरा बायाँ हाथ न जानने पाए।
(मत्ती 6:2-3)
ज्यादातर धर्म के काम करने वालों में ये दो प्रकार के विचार चलते है- खुद की महिमा के लिए या पिता की महिमा के लिए। और इनमें से कौनसा उन पर प्रबल है ये ही उनके काम करने के उद्देश्य को निर्धारित करता है। अगर हम अपने आप को वचन से जांचे तो हम समझ पाएंगे कि हमारी अवस्था क्या है । जो परमेश्वर की महिमा के लिए कोई काम करना चाहते है उसे दूसरों से प्रशंसा पाने के बारे में विचार भी नहीं करना चाहिए। ना ही अपने भले कामो का ब्योरा रखना चाहिए।
करो और भूल जाओ, सोचना भी क्यों है? याद रखना भी क्यों है? खुद के कामों को सराहने के लिए? तो फिर क्या खुद के लिए ही कर रहे हो या फिर परमेश्वर के लिए? मसीह कहते है कि हमे इस विचार के अलावा और किसी विचार को जगह ही नहीं देनी चाहिए कि हम पिता कि सेवा अपने सम्पूर्ण अस्तित्व से कर पाएं। (मति 22:37) और जब हम सीखते ही परमेश्वर से हैं और उन्ही से सामर्थ पाते है और फिर उन्ही से ही अवसर पाते हैं तो इसमें हम अपनी बड़ाई कैसे कर सकते हैं।(लूका 17:10)
हमें तो अपना भरसक प्रयास करना चाहिए कि कोई भी मनुष्य जान ही ना पाए
आइए थोड़ा और जांचे !
- कलिसिया में दान
तुम्हारा दान गुप्त रहे, मतलब सिर्फ तुम और तुम्हारे पिता के बीच ही रहे।
अगर हम खुद से पूछें
क्या आज हमारे दान देने या लेने का तरीका सही है?
क्या आज भी देते समय दिखाना या बताना सही है ?
क्या हम इसलिए अपना हाथ देने के लिए बढ़ाते हैं कि अगर नहीं दान दिया तो पास वाला क्या सोचेगा ?
क्या हम भी फरिसीयो की तरह नहीं कर रहे?
क्या पासवान भी अभी भी दशमांश की ही शिक्षा देते हैं और वचन का ज्ञान ना रखने वालों को धोखे में रखते हैं?
क्या हम लिफाफे पर अपना नाम लिख कर इसलिए देते है कि पासवान, अगुवों को पता चले कि हम कितना दे रहे है?
और अगर ऐसा है तो न केवल हम आज्ञा का उल्लघंन कर रहे है बल्कि बहुतों के लिए ठोकर का कारण भी बनते है और बहुत से सेवक आपकी वजह से पक्षपात के पाप में लिप्त हो जाते है और ऐसे लोगो को खुश करने में लगे रहते है जो ज्यादा या लगातार देते है।
क्या पासवान जिस से ज्यादा आशा है उसी से ज्यादा हमदर्दी और बाकियों को तुच्छ जानने के पाप में तो नहीं जी रहे कहीं?
(याकूब 2:1-12)
इसका मतलब ये नहीं कि हमे दान देना नहीं चाहिए पर बाइबल तो बताती है कि हमे बढ़ चढ़ के देना है और मदद के लिए अपना हाथ बढ़ाना है।(2 कुरूंथियो 8:7, 2 कुरुंथियो 9) पर जैसा कि ऊपर आपने पढ़ा कि परमेश्वर के वचन के खिलाफ देना ना केवल प्रतिफल खोना है परंतु अवज्ञाकारिता एवं पाप है।
इसलिए जब भी हम दान देते है तो हमें इसी से ही संतुष्टि मिलनी चाहिए कि सिर्फ पिता को ही पता है कि मैंने कितना, किन परिस्थतियों में, किस मन से और अपनी कितनी घटी में से दिया है (मरकुस 12:41-44)
- क्या दशमांश देना भी परमेश्वर की आज्ञा है?
और अगर कोई नहीं दे रहा है तो क्या वो परमेश्वर के वचन की अवज्ञा कर रहा है?
बाइबल में पुराने नियम में इज़राइलियों को व्यवस्था के हिसाब से अपनी फसल का 10 % और जो भी उनके पशु और संसाधन थे उनमें से भी देना अनिवार्य था (लेव्यवस्था 27:30 गिनती 18:26, व्यवस्थाविवरण 14:24, 2 इतिहास 31:5) इस प्रकार कुल 23.3 % उन्हें देना होता था।
परन्तु जब येशु मसीही ने अपने पवित्र निष्पाप जीवन, और पिता की सभी आज्ञा और सारी व्यवस्था के पूर्ण करने के द्वारा (निर्गमन 20:3-17, मती 22:38-39) और व्यवस्था के अनुसार अपने प्राण देकर और वापस जी उठकर सब कुछ पूरा कर दिया तो अब कोई व्यवस्था के अधीन नहीं रहा। (गलतियों 3:22-25)
अब जब येशु ने सब कुछ नया कर दिया तो अब दशमांश की व्यवस्था भी नहीं है। और नया नियम में कहीं भी दशमांश देने के बारे में नहीं लिखा है। जबकि कुछ कलीसियाएं अभी भी दश्मांश देने पर जोर देती है।
यह परमेश्वर के वचन के खिलाफ है ।
नया नियम हमे दान देने के महत्व और लाभ के बारे में जरूर बताता है, हमारी जितनी काबिलियत है उतना हमे देना चाहिए चाहे 10% से ज्यादा दो या फिर उस से कम दो। ये सब विश्वासी की क्षमता और मसीह की देह की आवश्यकताओं के हिसाब से ही होना चाहिए पर हर विश्वासी प्रार्थना के साथ और सही मन और परमेश्वर की महिमा के लिए दे। जब तुम कुड़ कुड़ा कर और दबाव में दे रहे हो तो फिर मन से देना और परमेश्वर को प्रसन्न करना कहां रहा? ( 2 कुरूंथियों 9:7)।
इसलिए जब भी दान दो तो इस भ्रम में भी मत दो कि तुम्हारे देने से तुमसे पिता ज्यादा प्रेम करेंगे या नहीं दोगे तो कम, हम सिर्फ और सिर्फ मसीह के द्वारा ही धर्मी है न कि हमारे कामो के द्वारा (1 कुरुंथियों 1:30-31) और परमेश्वर जो दयावान है एवं दुष्ट और धर्मी दोनों पर वर्षा करते है और किसी का पक्षपात नहीं करते (कुलूसियो 3:25) हमे प्रतिफल जरूर देते है। ऐसे नहीं देते जैसे किसी सेवक ने कुछ काम कर के कमाया हो पर एक पिता की तरह अपने उस पुत्र को जो उनकी सेवा करता है अपनी इच्छा के अनुसार देते है।
हमें परमेश्वर के प्रति धन्यवादी और आभारी रहना है और ना ही इसलिए देना हैं कि हमने दिया है तो हमें अब और मिले, बल्कि यह नहीं भूलना है कि जो कुछ भी हमे मिला है उसके हम बिल्कुल लायक नहीं। (भजन 116:12)
बाइबल हमे गरीबों, विधवाओं की सुधि लेने के लिए भी कहती है (नीति वचन 14:31,19:17,मती 25:40)
पर ध्यान रहे।
मेरा उद्देश्य निरुत्साहित करना नहीं है पर बस यह है कि हम खुद को सिर्फ और सिर्फ वचन के आधार पर जांचें और पिता के लिए उनके वचन के आधार पर जियें ।
कुछ लोग अपने धार्मिक कामों को सबको दिखाने में लगे रहते है और सोशियल मिडिया के द्वारा भी दिखाते है।
ऐसा करने से पहले अपने आप से ये पूछना जरूरी है कि मेरे what’s app अथवा Facebook आदि पर स्टेटस लगाने का उद्देश्य क्या है?
क्या यह है कि लोग जाने कि हम कितने दयावान है?
या फिर अपने असलियत को छिपाने के लिए मात्र एक दिखावा है?
क्या परमेश्वर आपके असली स्टेटस को नहीं जानते?
और क्या उन्हें नहीं पता कि आपकी मनसा क्या है?
अगर कोई विश्वासी इस प्रकार कर रहा है और उसे तारीफ मिल रही है तो उसे देखने वाले लोग भी प्रलोभन में आ जाते है और लोगों से प्रसन्नता पाने के लिए वैसा ही करने लग जाते है या फिर कोई मसीही कहलाने वाला भी इस प्रकार दिखा कर काम कर रहा है और लोग उसे बढ़ावा दे रहे है इसलिए मुझे भी करना चाहिए।
नहीं !
अच्छा है कि हम लोगो को परमेश्वर के लिए जीने और काम करने के लिए प्रोत्साहित करें एवं उन्हें सराहे पर साथ ही साथ मसीह में भाई होने के नाते उन्हें समय समय पर चेताए भी कि वे सावधान भी रहें कहीं शैतान उन्हें परमेश्वर की महिमा चुराने के लिए प्रलोभन में ना फसा ले। (2 तिमोथी 4:10, 2:15,25-26, प्रेरित 12:21-23)
ताकि तेरा दान गुप्त रहे; और तब तेरा पिता जो गुप्त में देखता है, तुझे प्रतिफल देगा।
(मत्ती 6:4)
जब भी जरूरतमदों को दो तो पहले अपने आप को भी जांचो और अपने आप से आसान सा सवाल पूछो
“क्यों?”
मनुष्य के लिए या फिर परमेश्वर के लिए?
क्या देते वक्त तुम्हारी आंखें चारो तरफ घूमती है उन आंखों को गिनने के लिए जो उस वक्त तुम्हे देख रही है?
क्या तुम देने से पहले ज्यादा भीड़ का इंतजार कर रहे हो कि ज्यादा लोग तुम्हे देखे?
या फिर इसलिए नहीं लोगों की मदद कर पा रहे हों कि कोई है ही नहीं तुम्हारे काम को देखने को?
बाइबल में हम ये भी देखते है कि धर्म के काम तो हनान्या और साफिरा ने भी किए थे पर क्या वो परमेश्वर की महिमा के लिए थे? (प्रेरित 5:1-11)
नहीं। उन्होंने इसलिए दिया क्योंंकि उन्होंने देखा कि बाकी विश्वासी अपना सब कुछ दे रहे थे (प्रेरित 4:32-37) तो फिर उन्होंने भी दिया पर लोगो को दिखाने के लिए कि हम भी धर्मी हैं पर परमेश्वर जो सब कुछ जानते है उनके काम को नहीं पर उनके मन के हिसाब से उन्हें प्रतिफल दिया।
इसलिए समझो कि परमेश्वर का वचन हमें आह्वान कर रहा है कि अपने आप को जांचो ।
क्या परमेश्वर मनुष्य के अंदर के विचारों से वाकिफ नहीं (यिरमियाह 17:9 )
हमें सचेत होने की आवश्यकता है यह एक ऐसा छिपा हुआ पाप है जो अपनी ही व्यर्थ की महिमा खोजता है और परमेश्वर के जो सब आदर, जलाल और महिमा के वाकई हकदार है से चुराने में अग्रसर है।
इसलिए येशु अपने सुनने वालों को जब वे मनुष्य को दिखाने के लिए धार्मिकता के काम कर रहे थे तब उनको दिखावे के लिए काम करने के लिए फटकार लगाई।
मुझे आशा है कि परमेश्वर के वचनों से आप खुद को जांच पाए होंगे और पाया होगा कि वास्तविकता में हम स्वार्थी और अपनी महिमा के लिए ही जीने वाले है। आइये हम अंगीकार करें कि हां प्रभु मेरी दशा ये ही है और मैं खुद को दिखाने के लिए ही करता हूं पर मैं आपके लिए करना चाहता हूं ,मेरी मदद कीजिए कि मैं आपके लिए जियू और आपके वचनों के अनुसार मेरा जीवन हो।
यदि हम अपने पापों को मान लें, तो वह हमारे पापों को क्षमा करने, और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में विश्वासयोग्य और धर्मी है। (भज। 32:5, नीति। 28:13)
(1 यूहन्ना 1:9)
आमीन !
– सौरभ मांडन
Amen
Commendable I agree with each word you have written here . Really many believers do not know the truth what actually bible teaches . They are simply blind followers. May almghty use you more n more for His glory and give you courage to teach the truth hidden in the Gods word.
Thankyou
Very Nice
May God Bless You