क्योंकि मैं तुम से कहता हूँ, कि यदि तुम्हारी धार्मिकता शास्त्रियों और फरीसियों की धार्मिकता से बढ़कर न हो, तो तुम स्वर्ग के राज्य में कभी प्रवेश करने न पाओगे। (मत्ती 5:20)
कई झूठे लालची पास्टर इस आयत को देकर सिखाते हैं कि देखो तुम लोगों को अपनी आमदनी का दस प्रतिशत तो चर्च में देना ही चाहिए, इससे बढ़ कर देना चाहिए अन्यथा तुम स्वर्ग के राज्य में कभी भी प्रवेश न कर पाओगे। वे “स्वर्ग के राज्य में कभी प्रवेश न कर पाओगे” बहुत ज़ोर देकर कहते हैं। वे कहते हैं फरीसी और शास्त्री दस प्रतिशत देते थे, तुम्हें तो उससे अधिक देना चाहिए, तभी तुम स्वर्ग में प्रवेश कर पाओगे।
इन भेड़ियों ने इस आयत में से सिर्फ धन के बारे में ही शिक्षा देना चुना, बल्कि प्रत्यक्ष रूप से धन के विषय में यहां कुछ भी नहीं लिखा है। वास्तव में यह आयत धन ही नहीं सम्पूर्ण जीवन के विषय में बात करती है। प्रभु यीशु मसीह यह नहीं कह रहे हैं कि हमारा उद्धार हमारी अपनी धार्मिकता से होता है, लेकिन वह फरीसियों की धार्मिकता से अधिक होनी चाहिए। पवित्रशास्त्र स्पष्ट है उद्धार हमारे कर्मों के द्वारा नहीं, बल्कि अनुग्रह के द्वारा होता है। हम धर्मी अपने कर्मों के द्वारा नहीं, लेकिन विश्वास के माध्यम से ठहरते हैं। इन आयतों को देखें:
तौभी यह जानकर कि मनुष्य व्यवस्था के कामों से नहीं, पर केवल यीशु मसीह पर विश्वास करने के द्वारा धर्मी ठहरता है, हम ने आप भी मसीह यीशु पर विश्वास किया कि हम व्यवस्था के कामों से नहीं, पर मसीह पर विश्वास करने से धर्मी ठहरें; इसलिये कि व्यवस्था के कामों से कोई प्राणी धर्मी न ठहरेगा। ‘ (गलातियों 2:16)
यीशु मसीह का अर्थ यह है कि हमारी धार्मिकता फरीसियों और शास्त्रियों की बाहरी, दिखावटी, पाखंडी स्व-धार्मिकता (self-righteousness) से अधिक होनी चाहिए, अर्थात सच्ची होनी चाहिए। फरीसी अपने बाहरी कर्मों और आडम्बरों के द्वारा धर्मी कहलाते थे (थे नहीं)। यीशु मसीह का अर्थ यह है कि यदि हम स्वर्ग में प्रवेश करना चाहते हैं तो हमें स्वयं के बाहरी कर्मों से उद्धार पाने की कोशिश छोड़कर धार्मिकता के लिए यीशु मसीह पर निर्भर होना चाहिए और उसके परिणामस्वरूप हमारा जीवन नवीन और धार्मिकता के सब फलों से परिपूर्ण होना चाहिए। परमेश्वर के सामने ग्रहणयोग्य सच्ची धार्मिकता मसीह में विश्वास के माध्यम से आती है:
क्योंकि वे परमेश्वर की धार्मिकता से अनजान होकर, और अपनी धार्मिकता स्थापित करने का यत्न करके, परमेश्वर की धार्मिकता के अधीन न हुए। क्योंकि हर एक विश्वास करनेवाले के लिये धार्मिकता के निमित्त मसीह व्यवस्था का अन्त है। (रोमियों 10:3-4)
और जो मसीह में विश्वास के माध्यम से धर्मी ठहर जाता है, उसमें मसीह ही के द्वारा धार्मिकता के फल भी लगते हैं:
‘और उस धार्मिकता के फल से जो यीशु मसीह के द्वारा होते हैं, भरपूर होते जाओ जिससे परमेश्वर की महिमा और स्तुति होती रहे। ‘ (फिलिप्पियों 1:11)
तो यीशु मसीह का कहना यह था कि जिसका मसीह में धर्मीकरण हो चुका है और जो उसमें पवित्र किए जा रहे हैं, वे ही सच्चे धर्मी हैं और महिमान्वित होंगे अर्थात स्वर्ग में प्रवेश करेंगे।
अब यह सच्ची धार्मिकता हमारे जीवन के हर क्षेत्र में होनी चाहिए, केवल धन के क्षेत्र में ही क्यों? सवाल उठता है कि यह धार्मिकता दिखती कैसी है? इसी अध्याय के आरम्भ में मसीह इस धार्मिकता की विशेषताएं बताता है:
“धन्य हैं वे, जो मन के दीन हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है।
“धन्य हैं वे, जो शोक करते हैं, क्योंकि वे शांति पाएँगे।
“धन्य हैं वे, जो नम्र हैं, क्योंकि वे पृथ्वी के अधिकारी होंगे।
“धन्य हैं वे, जो धार्मिकता के भूखे और प्यासे हैं, क्योंकि वे तृप्त किए जाएँगे।
“धन्य हैं वे, जो दयावन्त हैं, क्योंकि उन पर दया की जाएगी।
“धन्य हैं वे, जिन के मन शुद्ध हैं, क्योंकि वे परमेश्वर को देखेंगे।
“धन्य हैं वे, जो मेल करानेवाले हैं, क्योंकि वे परमेश्वर के पुत्र कहलाएँगे।
“धन्य हैं वे, जो धार्मिकता के कारण सताए जाते हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है।
“धन्य हो तुम, जब मनुष्य मेरे कारण तुम्हारी निन्दा करें, और सताएँ और झूठ बोल बोलकर तुम्हारे विरोध में सब प्रकार की बुरी बात कहें। तब आनन्दित और मगन होना, क्योंकि तुम्हारे लिये स्वर्ग में बड़ा फल है। इसलिये कि उन्होंने उन भविष्यद्वक्ताओं को जो तुम से पहले थे इसी रीति से सताया था। (लूका 6:3-12)
ये विशेषताएं फरीसियों और शास्त्रियों के घमंडी, स्व-धार्मिक (self-righteous) और अशुद्ध ह्रदय के बिलकुल विपरीत है। तो जब यीशु मसीह ने कहा कि स्वर्ग में प्रवेश करने के लिए फरीसियों से अधिक धार्मिकता की आवश्यकता है तो उसका अर्थ था कि सच्ची धार्मिकता या पवित्रता जो मसीह में नम्र और शुद्ध ह्रदय से निकलती है, वह इस बात का सबूत है कि वह मनुष्य स्वर्ग जाएगा।
लेकिन क्या हम अपनी आय का दस प्रतिशत या उससे अधिक दे सकते हैं? निश्चित रूप से। लेकिन ध्यान रहे दस प्रतिशत से अधिक देना हमें फरीसियों से अधिक धर्मी नहीं ठहराता। बल्कि प्रेमी, धन्यवादी, और आनंदित ह्रदय से 8 प्रतिशत, 10 प्रतिशत या उससे अधिक देना यह दर्शाता है कि हम मसीह में धर्मी ठहर चुके हैं और मसीह के ही आधार पर स्वर्ग में प्रवेश करेगें।
कुछ लोग कहते हैं कि पुरानी वाचा के लोग दस प्रतिशत देते थे, हम नई और बेहतर वाचा में हैं, हमें तो दस प्रतिशत से अधिक देना ही चाहिए, तभी हम स्वर्ग में प्रवेश करेंगे। वे दो गलतियां कर रहे हैं।
i) पहली, जैसा कि विद्वान बताते हैं, इज़राइली अपनी आय का केवल 10 प्रतिशत नहीं देते थे, लगभग 21 से 23 प्रतिशत तक देते थे। यदि कोई फरीसियों से अधिक देना चाहता है तो उसे कम से कम 23 प्रतिशत से अधिक देना चाहिए। हा हा ! हाथ खड़ा कीजिए, कौन देना चाहता है फरीसियों से अधिक?
ii) दूसरी, पुरानी वाचा के लोग जो कर रहे थे, पवित्र शास्त्र हमें उससे अधिक करने के लिए नहीं, बल्कि कम करने के लिए कहता है। देखिए पुरानी वाचा के नियम कितने बोझिल थे:
तो अब तुम क्यों परमेश्वर की परीक्षा करते हो कि चेलों की गरदन पर ऐसा जूआ रखो, जिसे न हमारे बापदादे उठा सके थे और न हम उठा सकते हैं? हाँ, हमारा यह निश्चय है कि जिस रीति से वे प्रभु यीशु के अनुग्रह से उद्धार पाएँगे; उसी रीति से हम भी पाएँगे।” (प्रेरितों 15:10-11)
इसके विपरीत नई वाचा में मसीह हमें हल्का जुआ देता है:
“हे सब परिश्रम करनेवालो और बोझ से दबे हुए लोगो, मेरे पास आओ; मैं तुम्हें विश्राम दूँगा। 29मेरा जूआ अपने ऊपर उठा लो, और मुझ से सीखो; क्योंकि मैं नम्र और मन में दीन हूँ : और तुम अपने मन में विश्राम पाओगे। क्योंकि मेरा जूआ सहज और मेरा बोझ हल्का है।” (मत्ती 11:28-30)
ध्यान देने की बात यह है कि चाहे मूसा का जुआ हो या मसीह का — दोनों में से एक भी उद्धार पाने का तरीका नहीं रहा है। उद्धार सदा से मसीह में विश्वास करने के माध्यम से प्राप्त हुआ है। पर जो भी जिस वाचा में उद्धार पाता है, उसे उद्धार के परिणामस्वरूप उस वाचा की विधियों का पालन करना आवश्यक है।
दशमांश पुरानी वाचा का हिस्सा है, हम पुरानी वाचा नई वाचा के विश्वासियों पर नहीं रख सकते, क्योंकि मसीह ने पुरानी वाचा की सभी आज्ञाओं और शर्तों को पूर्ण रूप से पूरा कर दिया है (मत्ती 5:17–18)।
हम तो बस यही कह सकते हैं कि उद्धार पूरी तरह अनुग्रह से विश्वास के माध्यम होता है:
क्योंकि विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है; और यह तुम्हारी ओर से नहीं, वरन् परमेश्वर का दान है, और न कर्मों के कारण, ऐसा न हो कि कोई घमण्ड करे। (इफिसियों 2:8-9)
और देने के विषय में हम यह कह सकते हैं:
‘हर एक जन जैसा मन में ठाने वैसा ही दान करे; न कुढ़ कुढ़ के और न दबाव से, क्योंकि परमेश्वर हर्ष से देनेवाले से प्रेम रखता है। ‘ (2 कुरिन्थियों 9:7)
इन शब्दों पर ध्यान दें:
- हर एक जन
- जैसा मन में ठाने
- वैसा ही दान करे;
- न कुढ़ कुढ़ के
- और न दबाव से,
- क्योंकि परमेश्वर हर्ष से देनेवाले से प्रेम रखता है।
नई वाचा की यही मांग है। किसी को भी मत्ती 5:20 का दुरुपयोग करके दशमांश या उससे अधिक माँगने का अधिकार नहीं है। चाहे 8 प्रतिशत हो या 10 या 15 प्रतिशत, प्रेमी और धन्यवादी ह्रदय से होना चाहिए। और हमें अधिक से अधिक देना चाहिए, यहां तक की त्याग करके भी (2 कुरिन्थियों 8:1–4)। पर यह सब प्रेम और धन्यवाद से भरे ह्रदय से होना चाहिए–उद्धार पाने के लिए नहीं, बल्कि उद्धार पाए हुओं के रूप में।