Reformed baptist church in jaipur

A. W. Pink

परमेश्वर की एकान्तता (Solitariness of God)

लेखक: ए. डब्ल्यू. पिंक (“परमेश्वर के गुण” नामक पुस्तक से) 
अनुवादक: पंकज

(1) शायद अध्याय का शीर्षक इसके विषय को  इंगित करने के लिए पर्याप्त रूप से स्पष्ट नहीं है। इसका कुछ कारण तो यह है कि बहुत कम लोगों में परमेश्वर के वैयक्तिक सिद्ध गुणों पर ध्यान करने की आदत है।  तुलनात्मक रूप से बहुत कम जो कभी-कभार बाइबल पढ़ते हैं परमेश्वर के चरित्र की विस्मयकारी और आराधना उत्पन्न करनेवाली महानता से अवगत है।  परमेश्वर ज्ञान में महान और शक्ति में अद्भुत है, फिर भी दया से भरा हुआ है- इसको कई लोग सामान्य ज्ञान के रूप में मानते हैं। परन्तु इस भ्रष्ट युग में ऐसे ना के बराबर लोग हैं जिन्होंने पवित्रशास्त्र में प्रकट परमेश्वर के अस्तित्व, स्वभाव और गुणों को पर्याप्त रूप से समझने के विचार में रूचि दिखाई हो। परमेश्वर महानता में अपने जैसा खाली एक ही है।

“हे यहोवा, देवताओं में तेरे तुल्य कौन है?

तू तो पवित्रता के कारण महाप्रतापी,

और अपनी स्तुति करने वालों के भय के योग्य,

और आश्‍चर्यकर्म का कर्ता है।” (निर्गमन 15:11)

(2) “आदि में परमेश्वर” (उत्पत्ति 1:1)। एक समय था, (यदि इसे समय बोला जा सके तो), जब परमेश्वर अपने स्वभाव की एकता में (यद्यपि सामान रूप से तीन व्यक्तियों में विद्यमान) अकेला रहता था। “आदि में परमेश्वर”। तब आसमान नहीं था जहां उसकी महिमा विशेष रूप से प्रकट है। पृथ्वी नहीं थी जिसपे कि वो ध्यान दे। उसकी प्रशंसा गाने के लिए स्वर्गदूत नहीं थे । उसकी शक्ति के वचन के द्वारा बनाए रखने के लिए कोई ब्रह्मांड नहीं था। कुछ भी नहीं था, कोई नहीं था, लेकिन सिर्फ परमेश्वर था; और वह एक दिन, एक साल या एक युग  से नहीं, लेकिन “अनन्त काल से था”।  पिछले अनंत काल के दौरान परमेश्वर अकेला था – अस्तित्व के लिए अपने ही ऊपर निर्भर और अपने आप में पर्याप्त- उसे किसी चीज की आवश्यकता नहीं थी। यदि ब्रह्मांड, स्वर्गदूत या मनुष्य उसके लिए किसी भी तरह से आवश्यक होते, तो वो उनको भी अनंत काल से अस्तित्व में ले आता। जब परमेश्वर ने इनकी सृष्टि की तो उसमे तत्वतः (या उसके अस्तित्व में) कुछ जुड़ा नहीं। वह नहीं बदलता (मला. 3:6), इसलिए उसकी तात्त्विक महिमा को न तो बढ़ाया जा सकता है और न ही कम किया जा सकता है।

(3) परमेश्वर ने सृष्टि-निर्माण का कार्य किसी मजबूरी में, कर्त्तव्य द्वारा बाध्य होकर या किसी आवश्यकता के कारण नहीं किया। उसने ऐसा करने का चुनाव किया- यह विशुद्ध रूप से उसकी ओर से एक संप्रभु (sovereign) कार्य था।  उसके खुद के बाहर किसी और चीज़ ने उससे ये नहीं करवाया।  उसने ये निर्णय किसी और चीज़ के कारण नहीं परन्तु खुद की मर्जी से लिया, क्योंकि वह “सब कुछ अपनी इच्छा के अनुसार करता है” (इफि. 1:11)। जो उसने बनाया वह केवल उसकी प्रकट महिमा (manifestative glory) के लिए था। क्या हमारे किसी पाठक को यह लग रहा है कि हम पवित्रशास्त्र से आगे निकल गए ? अगर ऐसा है तो हम (पवित्रशास्त्र में दी गई) व्यवस्था और गवाही का हवाला देंगे:

 “खड़े हो, अपने परमेश्‍वर यहोवा को अनादिकाल से अनन्तकाल तक धन्य कहो। तेरा महिमायुक्‍त नाम धन्य कहा जाए, जो सब धन्यवाद और स्तुति से परे है।” (नहे. 9:5)।

परमेश्वर को हमारी आराधना से कोई लाभ नहीं होता। उसे अपने अनुग्रह की उस बाहरी महिमा की कोई आवश्यकता नहीं थी, जो उसके छुड़ाए हुओं के द्वारा होती है , क्योंकि वह तो इसके बिना भी अपने आप में पर्याप्त महिमावान है। उसने कुछ लोगों को अपने अनुग्रह की महिमा की स्तुति के लिए पहले से चुनकर  क्यों ठहराया? उसने ये “अपनी इच्छा के भले अभिप्राय के अनुसार” (इफि. 1:5) किया ।

(4) हम इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि हम यहां जिस बड़ी बात की चर्चा कर रहें हैं, वह लगभग हमारे सभी पाठकों के लिए नई और अपरिचित है, इसलिए धीरे-धीरे आगे बढ़ना अच्छा है। हम फिर से पवित्र शास्त्र का हवाला देंगे।  प्रेरित (पौलुस) संप्रभु अनुग्रह के ही द्वारा उद्धार  की बात को निष्कर्ष की ओर लाकर पूछता है,

““प्रभु की बुद्धि को किसने जाना?

या उसका मंत्री कौन हुआ?

या किसने पहले उसे कुछ दिया है जिसका

बदला उसे दिया जाए?” (रोमि. 11:34-35)।

यहाँ इस बात पर जोर दिया गया है कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर सृष्टि के लिए कुछ करने को बाध्य नहीं । परमेश्वर को हमसे कुछ लाभ नहीं है।

यदि तू धर्मी है तो उसको क्या दे देता है;

या उसे तेरे हाथ से क्या मिल जाता है?

तेरी दुष्‍टता का फल तुझ जैसे पुरुष के लिये है,

और तेरे धर्म का फल भी मनुष्य मात्र

के लिये है। (अय्यूब 35:7-8)।

ये तो पक्की बात है कि सृष्टि किये हुए प्राणी परमेश्वर को प्रभावित नहीं कर सकते, जो कि अपने आप में परम-धन्य (परम-आनंदित) है। ” तुम भी जब उन सब कामों को कर चुको जिसकी आज्ञा तुम्हें दी गई थी, तो कहो, ‘हम निकम्मे (अलाभप्रद) दास हैं” (लूका 17:10)—हमारी आज्ञाकारिता से परमेश्वर को कुछ भी लाभ नहीं होता है।

(5) हम और आगे बढ़ते हैं: हमारे प्रभु यीशु मसीह ने जो किया या सहा, उसके द्वारा उसने परमेश्वर के तात्विक अस्तित्व ओर महिमा (essential being and glory) में कुछ भी नहीं जोड़ा। यह सत्य है, महिमावान रूप से  सत्य है कि  उसने परमेश्वर की महिमा को हम पर प्रकट किया, लेकिन उसने परमेश्वर में कुछ जोड़ा नहीं। वह स्वयं स्पष्ट रूप से ऐसा घोषित करता है, “मेरी भलाई तुझ तक नहीं पहुँचती” (भजन 16:2)।वह पूरा भजन मसीह का भजन है। मसीह की भलाई या धार्मिकता पृथ्वी पर उसके संतों तक पहुँची (भजन 16:3), परन्तु परमेश्वर इस सबसे ऊपर और परे था।

(6) यह सत्य है कि परमेश्वर का आदर और अपमान मनुष्य द्वारा किया जाता है- उसके तात्विक अस्तित्व (essential being) में नहीं, लेकिन उसके आधिकारिक/प्रशासकीय चरित्र (official character) में। यह भी उतना ही सच है कि परमेश्वर सृष्टि, इसकी देखभाल और उद्धार के काम के द्वारा महिमान्वित होता है। हम एक पल के लिए भी इस सत्य के खिलाफ होने की हिम्मत नहीं कर सकते। लेकिन इन सबका संबंध उसकी प्रकट महिमा (manifestative glory) और हमारे द्वारा इसको पहचानने जाने से है।  यदि परमेश्वर चाहता तो अनंत काल तक अकेला ही रहता और प्राणियों (को बना कर उन) पर अपनी महिमा प्रकट नहीं करता। उसे ऐसा करना चाहिए था या नहीं- यह उसने केवल अपनी ही इच्छा से निर्धारित किया। वह पहले प्राणी को अस्तित्व में लाने से पहले भी अपने आप में पूरी तरह से धन्य (परम आनंदित और परम संतुष्ट) था। और उसके हाथों के बनाये प्राणी अब भी उसके सामने क्या हैं? पवित्रशास्त्र फिर से उत्तर देता है:

देखो, जातियाँ तो डोल में की एक बून्द या पलड़ों पर की धूल के तुल्य ठहरीं; देखो, वह द्वीपों को धूल के किनकों सरीखे उठाता है। लबानोन भी ईंधन के लिये थोड़ा होगा और उसमें के जीव–जन्तु होमबलि के लिये बस न होंगे। सारी जातियाँ उसके सामने कुछ नहीं हैं, वे उसकी दृष्‍टि में लेश और शून्य से भी घट ठहरी हैं। तुम परमेश्‍वर को किसके समान बताओगे और उसकी उपमा किस से दोगे? (यशायाह 40:15-18)

(7) ऐसा है पवित्रशास्त्र का परमेश्वर; लेकिन, वह  ध्यान ना देने वाली भीड़ के लिए अभी भी “अज्ञात ईश्वर” है (प्रेरितों 17:23)।

“यह वह है जो पृथ्वी के घेरे के ऊपर आकाशमण्डल पर विराजमान है, और पृथ्वी के रहनेवाले टिड्डी के तुल्य हैं; जो आकाश को मलमल के समान फैलाता और ऐसा तान देता है जैसा रहने के लिये तम्बू ताना जाता है; जो बड़े बड़े हाकिमों को तुच्छ कर देता है, और पृथ्वी के अधिकारियों को शून्य के समान कर देता है।” (यशा. 40:22-23)।

पवित्रशास्त्र का परमेश्वर सामान्यतया चर्चों में प्रचार किये जाने वाले ईश्वर से कितना अधिक भिन्न है!

(8) नए नियम की गवाही पुराने नियम से अलग नहीं  है। हो भी कैसे सकती है- दोनों का  लेखक तो एक ही है? वहां भी हम पढ़ते हैं,

 “जिसे वह ठीक समय पर दिखाएगा, जो परमधन्य और एकमात्र अधिपति और राजाओं का राजा और प्रभुओं का प्रभु है, 16और अमरता केवल उसी की है, और वह अगम्य ज्योति में रहता है, और न उसे किसी मनुष्य ने देखा और न कभी देख सकता है। उस की प्रतिष्‍ठा और राज्य युगानुयुग रहेगा। आमीन।” (1 तीमु. 6:15-16)।

यह ऐसा परमेश्वर सम्मान, आराधना और प्रेम से भरी हुई प्रशंसा के योग्य है। वह अपनी महिमा में अकेला या एकान्त है, महानता (excellency) में अद्वितीय है औरअपनी  सिद्धताओं/पूर्णताओं/सिद्ध गुणों (perfections) में अतुलनीय है। वह सबका पालन-पोषण करता है और सबको बनाये रखता है, लेकिन वह स्वयं सभी से स्वतंत्र है और अपने आप से अस्तित्व में है। वह सभी को देता है और किसी से उसको कुछ लाभ नहीं पहुँचता।

(9) ऐसे परमेश्वर को खोज कर नहीं पाया जा सकता। उसे पवित्र आत्मा के द्वारा वचन के माध्यम से हृदय पर प्रगट किये जाने के द्वारा ही जाना जा सकता है । यह सच है कि सृष्टि एक सृष्टिकर्ता को प्रदर्शित करती है, और इतने स्पष्ट रूप से कि मनुष्य “निरुत्तर” (अर्थात विश्वास नहीं करने के लिए उनके पास कोई बहाना नहीं) हैं।  फिर भी हमें अय्यूब के साथ कहना पड़ेगा,

“देखो, ये तो उसकी गति के किनारे ही हैं;

और उसकी आहट फुसफुसाहट ही सी तो सुन पड़ती है,

फिर उसके पराक्रम के गरजने का भेद कौन

समझ सकता है?”” (अय्यूब 26:14)।

हम मानते हैं कि धर्ममंडकों (apologists) के द्वारा सुव्यवस्थित सृष्टि (design) के आधार पर दिए जाने वाले तथाकथित तर्क ने फायदे से ज्यादा नुकसान ही किया है। इसने महान परमेश्वर को सृष्टि की सीमित समझ (कि सृष्टि उस अगम परमेश्वर को समझ सकती है) के निम्न स्तर पर लाने का प्रयास किया है और उसकी एकांत महानता या परम-श्रेष्ठता (solitary excellence) को देखने की दृष्टि खो दी।

(10) उन्होंने एक दृष्टांत दिया है जिसमे एक आदिवासी को रेत में  एक घड़ी पड़ी मिलती है और ठीक से परिक्षण के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुँच जाता है कि इसको बनाने वाला कोई घड़ीसाज अस्तित्व में है। यहां तक तो सब ठीक है। लेकिन आगे जाने की कोशिश करो। मान लो कि आदिवासी रेत पर बैठता है और इस घड़ीसाज़ को समझने का प्रयास करता है- उसके वैयक्तिक गुणों या प्रवर्तियों, उसके तौर-तरीकों, उसके दिमाग, उसकी उपलब्धियों और उसके नैतिक चरित्र, अर्थात उन सब चीज़ों को जिनसे एक व्यक्तित्व बनता है, को समझने का प्रयास करता है। क्या वह कभी उस असलीआदमी की सटीक कल्पना कर सकता है, जिसने घड़ी बनाई, ताकि वह कह सके, “मैं उसे जानता हूँ”? नहीं। तो क्या अनादि-अनंत परमेश्वर, जो इतना ज्यादा बड़ा है, मनुष्य की छोटी बुद्धि के द्वारा समझा जा सकता है ?  नहीं, बिल्कुल नहीं । पवित्रशास्त्र के परमेश्वर को केवल वे ही जान सकते हैं जिन पर वह स्वयं को प्रकट करे।

(11) परमेश्वर को बुद्धि के द्वारा भी नहीं जाना जा सकता है। “परमेश्वर आत्मा है” (यूहन्ना 4:24), और इसलिए वह केवल आत्मिक रूप से ही जाना जा सकता है। लेकिन गिरा हुआ मनुष्य आत्मिक नहीं है, वह शारीरिक है। वह उन सब चीज़ों के लिए मरा हुआ है, जो आत्मिक है। जब तक वह नया जन्म ना पा ले,अलौकिक रूप से मृत्यु से जीवन में ना लाया जाए और चमत्कारिक रूप सेअन्धकार से ज्योति में ना लाया जाए, तब तक वह परमेश्वर की बातों को देख भी नहीं सकता (यूहन्ना 3:3); समझना तो दूर कि बात हैं (1 कुरि. 2:14)। पवित्र आत्मा को “यीशु मसीह के चेहरे के द्वारा हमारे परमेश्‍वर की महिमा की पहिचान की ज्योति”  (2 कुरिं। 4:6) हमे देने के लिए हमारे अंतर्मन को (बुद्धि को नहीं) प्रकाशमान करना होता है।  लेकिन यह आत्मिक ज्ञान भी आंशिक है। नया जन्म पाए आत्मा को प्रभु यीशु के ज्ञान और अनुग्रह में बढ़ना होता है  (2 पत. 3:18)।

(12) मसीहियों की मुख्य प्रार्थना और उद्देश्य  यह होना चाहिए कि “हमारा चाल–चलन प्रभु के योग्य हो, और वह सब प्रकार से प्रसन्न हो, और हम में हर प्रकार के भले कामों का फल लगे, और हम परमेश्‍वर की पहिचान में बढ़ते जाएं”  (कुलु. 1:10)।

 

 

 

3 thoughts on “परमेश्वर की एकान्तता (Solitariness of God)”

  1. Parmeshwar का धन्यवाद हो उसने हमे अपने आत्मा के द्वारा नया जन्म दिया जिससे हम उस पर विश्वास कर पाए उसे जान पाए हमने सीखा की हमे भी हमारे अपनो के लिए प्रार्थना करनी है जिससे वो भी प्रभु की इच्छा m आत्मिक रूप से जिलाए जाए.. और हम मसीह की पहचाना और उसके चाल चलन मे बढ़ते जाए
    धन्यवाद

  2. Parmeshwar का धन्यवाद हो उसने हमे अपने आत्मा के द्वारा नया जन्म दिया जिससे हम उस पर विश्वास कर पाए उसे जान पाए हमने सीखा की हमे भी हमारे अपनो के लिए प्रार्थना करनी है जिससे वो भी प्रभु की इच्छा m आत्मिक रूप से जिलाए जाए.. और हम मसीह की पहचाना और उसके चाल चलन मे बढ़ते जाए
    धन्यवाद

  3. Prabhu ka dhanybad ki usne hume apne anugrh se atmik biswas diya or hume uski mahima karene ka ek moka diya ni to hum paap me hi pade hote or mahamahi humare shrastykarta ko ni jaan pate .

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