पैराग्राफ़ -1
(i) परमेश्वर ने मानव इच्छा को स्वाभाविक स्वतंत्रता और विकल्पों पर कार्य करने की शक्ति के साथ संपन्न किया है (विकल्पों में से चुनने की शक्ति दी है), ताकि यह न तो स्वाभाव के द्वारा अच्छा या बुरा करने के लिए मजबूर हो और न ही अन्तर्निहित रूप से बाध्य हो।
(i) 1 मत्ती 17:12; याकूब 1:14; व्यवस्थाविवरण 30:19
पैराग्राफ़ -2
(i) निर्दोषता की अवस्था में मानवता के पास अच्छे और परमेश्वर को भाने वाले कार्यों की इच्छा करने और उन्हें करने की स्वतंत्रता और शक्ति थी। (ii) फिर भी यह अवस्था अस्थिर थी, जिसके परिणामस्वरूप मानवता इससे पतित होने में समर्थ थी।
(i) सभोपदेशक 7:29
(ii) उत्पत्ति 3:6.
पैराग्राफ़ -3
(i) मानव जाति पाप की अवस्था में गिरने के कारण उद्धार से सम्बन्ध रखने वाली किसी भी आत्मिक अच्छाई/भलाई को चुनने की क्षमता पूरी तरह खो चुकी है। (ii) इस प्रकार लोग अपनी स्वाभाविक अवस्था में आत्मिक अच्छाई/भलाई के बिल्कुल विरोधी हैं और पाप में मरे हुए हैं, (iii) जिसके परणामस्वरूप वे स्वयं को अपनी शक्ति से परिवर्तित नहीं कर सकते; न ही परिवर्तन के लिए स्वयं को तैयार कर सकते हैं।
(i) रोमियों 5:6; रोमियों 8:7
(ii) इफिसियों 2:1, 5
(iii) तीतुस 3:3–5; यूहन्ना 6:44
पैराग्राफ़ -4
(i) जब परमेश्वर पापियों को परिवर्तित करता है और उन्हें अनुग्रह की अवस्था में पंहुचा देता है, तब वह उन्हें पाप के उनके स्वाभाविक बंधन से मुक्त कर देता है (ii) और केवल अपने अनुग्रह के द्वारा ही उन्हें आत्मिक भलाई को स्वतंत्र रूप से चाहने और करने में सक्षम बना देता है। (iii) फिर भी उनकी शेष भ्रष्टता के कारण वे सदा केवल भलाई को नहीं चुनते हैं; बल्कि बुराई को भी चुनते हैं।
(i) कुलुस्सियों 1:13; यूहन्ना 8:36
(ii) फिलिप्पियों 2:13
(iii) रोमियों 7:15, 18, 19, 21, 23
पैराग्राफ़ -5
(i) केवल महिमा की स्थिति में ही इच्छा केवल भलाई को चुनने के लिए पूरी तरह से और अपरिवर्तनीय रूप से स्वतंत्र होती है।
(i) इफिसियों 4:13