Reformed baptist church in jaipur

1689 बैपटिस्ट विश्वास अंगीकार अध्याय 1 – पवित्र शास्त्र

 

पैराग्राफ़ -1

(i)  पवित्र शास्त्र सभी उद्धार करने वाले ज्ञान, विश्वास और आज्ञाकारिता का एकमात्र पर्याप्त, निश्चित और अचूक मानक है।

(ii) यद्यपि प्रकृति से आने वाला ज्ञान और सृष्टि और विधान के कार्य इतने स्पष्ट रूप से परमेश्वर की अच्छाई, बुद्धि और सामर्थ को प्रदर्शित करते हैं कि मनुष्यों के पास (विश्वास नहीं करने के लिए) कोई बहाना नहीं रह जाता; तथापि ये प्रदर्शन परमेश्वर और उसकी इच्छा का वह ज्ञान देने के लिए पर्याप्त नहीं हैं जो उद्धार के लिए आवश्यक है।

(iii) इसलिए परमेश्वर को यह भाया कि वह अलग-अलग समय पर और विभिन्न तरीकों से अपने लोगों पर खुद को और अपनी इच्छा को प्रकट करे।

(iv) सत्य को बेहतर ढंग से संरक्षित और प्रचारित करने के लिए और मनुष्यों की भ्रष्टता और शैतान और संसार के द्वेष के खिलाफ अपने लोगों को अधिक निश्चितता के साथ स्थापित करने और उन्हें शांति देने के लिए, परमेश्वर ने इस प्रकाशन को पूरी तरह से लिखित रूप में कर दिया। इसलिए पवित्र शास्त्र नितांत आवश्यक है, क्योंकि परमेश्वर के अपने लोगों पर अपनी इच्छा प्रकट करने के पहले के तरीके अब बंद हो गए हैं।

(i) 2 तीमुथियुस 3:15-17; यशायाह 8:20; लूका 16:29, 31; इफिसियों 2:20

(ii) रोमियों 1:19–21; रोमियों 2:14,15; भजन 19:1-3

(iii) इब्रानियों 1:1

(iv) नीतिवचन 22:19-21; रोमियों 15:4; 2 पतरस 1:19, 20

 

पैराग्राफ़ -2

(i) पवित्र शास्त्र या  परमेश्वर का लिखित वचन पुराने और नए नियम की सभी पुस्तकों से मिलकर बना है। ये पुस्तकें निम्नलिखित हैं:

पुराना नियम: उत्पत्ति, निर्गमन, लैव्यव्यवस्था, गिनती, व्यवस्थाविवरण, यहोशू, न्यायिओं, रूत, 1 शमूएल, 2 शमूएल, 1 राजा, 2 राजा, 1 इतिहास, 2 इतिहास, एज्रा, नहेमायाह, एस्तेर, अय्यूब, भजन संहिता, नीतिवचन, सभोपदेशक, श्रेष्ठगीत, यशायाह, यिर्मयाह, विलापगीत, यहेजकेल, दानिय्येल, होशे, योएल, आमोस, ओबद्याह, योना, मीका, नहूम, हबक्कूक, सपन्याह, हग्गै, जकर्याह, मलाकी।

नया नियम: मत्ती, मरकुस, लूका, यूहन्ना, प्रेरितों के काम, रोमियों, 1 कुरिन्थियों, 2 कुरिन्थियों, गलातियों, इफिसियों, फिलिप्पियों, कुलुस्सियों, 1 थिस्सलुनीकियों, 2 थिस्सलुनीकियों, 1 तीमुथियुस, 2 तीमुथियुस, तीतुस, फिलेमोन, इब्रानियों, याकूब, 1 पतरस, 2 पतरस, 1 यूहन्ना, 2 यूहन्ना, 3 यूहन्ना, यहूदा, प्रकाशितवाक्य।

ये सभी (पुस्तकें) परमेश्वर की प्रेरणा से विश्वास और जीवन का मानक होने के लिए दी गई हैं।

(i) 2 तीमुथियुस 3:16

 

पैराग्राफ़ -3

(i) आम तौर पर अपोक्रिफा (अप्रमाणिक) कहलाने वाली पुस्तकें परमेश्वर की प्रेरणा से नहीं दी गई थीं और इसलिए वे पवित्र शास्त्र के  कैनन (पवित्रशास्त्र की पुस्तकों की अधिकृत सूची) का हिस्सा नहीं हैं। इसलिए उनका परमेश्वर की कलीसिया में कोई अधिकार नहीं है और उन्हें अन्य मानवीय पुस्तकों से अलग किसी भी तरह से पहचाना या इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए।

(i) लूका 24:27 44; रोमियों 3:2

 

पैराग्राफ़ -4

(i) पवित्र शास्त्र का अधिकार हमें उस पर विश्वास करने के लिए बाध्य करता है। यह अधिकार किसी व्यक्ति या चर्च की गवाही पर निर्भर नहीं करता है, बल्कि केवल इसके लेखक परमेश्वर पर निर्भर करता है, जो स्वयं सत्य है। इसलिए पवित्र शास्त्र को ग्रहण किया जाना चाहिए क्योंकि वह परमेश्वर का वचन है।

(i) 2 पतरस 1:19-21; 2 तीमुथियुस 3:16; 1 थिस्सलुनीकियों 2:13; 1 यूहन्ना 5:9

 

पैराग्राफ़ -5

(i) परमेश्वर की कलीसिया की गवाही हमें पवित्र शास्त्र के प्रति उच्च और आदरपूर्ण सम्मान की भावना अपनाने के लिए प्रेरित और राजी कर सकती है। इसके अलावा, विषयवस्तु की स्वर्गीयता, सत्य की व्यवस्था की सामर्थ, शैली का वैभव, सभी भागों का सामंजस्य, परमेश्वर को सारी महिमा देने पर केंद्रीय ध्यान, उद्धार के एकमात्र मार्ग का पूर्ण प्रकटीकरण, और कई अन्य अतुलनीय गुण और पूर्ण पूर्णताएं– ये सभी इस बात का प्रचुर प्रमाण प्रदान करते हैं कि पवित्रशास्त्र परमेश्वर का वचन है। फिर भी, पवित्र शास्त्र के अचूक सत्य और परमेश्वरीय अधिकार के विषय में हमारा पूरा विश्वास और आश्वासन पवित्र आत्मा के हमारे हृदय में वचन के द्वारा और उसके साथ गवाही देने केआंतरिक कार्य से आता है।

(i) यूहन्ना 16:13,14; 1 कुरिन्थियों 2:10-12; 1 यूहन्ना 2:20, 27

 

पैराग्राफ़ -6

(i) परमेश्वर की स्वयं की महिमा और मनुष्य के उद्धार, विश्वास और जीवन के लिए आवश्यक हर वस्तु के बारे में परमेश्वर की पूरी मंत्रणा पवित्र शास्त्र में या तो  स्पष्ट रूप से बताई गई है या दिए गए सत्यों के आधार पर निकाले गए आवश्यक निष्कर्षों के रूप में  निहित है। पवित्रशास्त्र में न तो आत्मा के नए प्रकाशन के द्वारा ना ही मानवीय परंपराओं के द्वारा कुछ जोड़ा जा सकता है।

(ii) तथापि हम यह मानते हैं कि परमेश्वर के आत्मा के द्वारा अंतःकरण में प्रबोधन (ज्ञान उत्पन्न करने का कार्य) वचन में प्रकट की गई बातों की उद्धारक समझ के लिए आवश्यक है।

(iii)  हम मानते हैं कि परमेश्वर की आराधना और कलीसिया के प्रशासन से संबंधित कुछ परिस्थितियाँ/बातें मानवीय कार्यों और संगठनों के लिए सामान्य हैं और उन्हें वचन के अनुल्लंघनीय सामान्य नियमों का पालन करते हुए स्वाभाविक ज्ञान और मसीही बुद्धि के प्रकाश में निर्देशित करना चाहिए।

(i) 2 तीमुथियुस 3:15-17; गलातियों 1:8,9

(ii) 10 यूहन्ना 6:45; 1 कुरिन्थियों 2:9-12

(iii) 1 कुरिन्थियों 11:13, 14; 1 कुरिन्थियों 14:26, 40

 

पैराग्राफ़ -7

(i) पवित्रशास्त्र की कुछ बातें दूसरी बातों की तुलना में अधिक स्पष्ट हैं, और कुछ लोग इसकी शिक्षाओं को दूसरों की तुलना में अधिक स्पष्ट रूप से समझते हैं।

(ii) तथापि, उद्धार के लिए जिन बातों को जानना, विश्वास करना और पालन करना आवश्यक है, वे पवित्रशास्त्र के किसी न किसी भाग में इतनी स्पष्ट रूप से बताई गई हैं और उनकी व्याख्या की गई हैं कि शिक्षित और अशिक्षित दोनों सामान्य साधनों का ठीक से उपयोग करके उनकी पर्याप्त समझ प्राप्त कर सकते हैं।

(i) 2 पतरस 3:16

(ii) भजन 19:7; भजन 119:130

 

पैराग्राफ़ -8

(i) पुराना नियम इब्रानी में लिखा गया था, जो परमेश्वर के प्राचीन लोगों की मूल भाषा थी।

(ii) नया नियम यूनानी भाषा में लिखा गया था, जो इसके लेखन के समय में राष्ट्रों (संसार) में सबसे व्यापक रूप से जानी जाती थी । ये दोनों नियम सीधे परमेश्वर की प्रेरणा के द्वारा दिए गए थे और उसकी अनूठी देखभाल और विधान के द्वारा सब युगों (इतिहास) में शुद्ध रखे गए। इसलिए वे सच्चे और आधिकारिक हैं, ताकि सभी धार्मिक विवादों में चर्च को उनसे अंतिम अपील करनी चाहिए।

(iii) परमेश्वर के सभी लोगों का पवित्रशास्त्र पर अधिकार और दावा है और उन्हें परमेश्वर के भय में इसे पढ़ने और खोजने की आज्ञा दी गई है।

(iv) परमेश्वर के सभी लोग इन मूल भाषाओं को नहीं जानते हैं, इसलिए पवित्रशास्त्र  को प्रत्येक उस राष्ट्र की आम भाषा में अनुवादित किया जाना चाहिए, जिसमे वह आता है।

(v) इस प्रकार परमेश्वर का वचन सब में बहुतायत से वास करे, जिस से लोग ग्रहणयोग्य रीति से उसकी आराधना कर सके और पवित्रशास्त्र से आने वाले धीरज और शान्ति के द्वारा आशा रख सके।

(i) रोमियों 3:2

(ii) यशायाह 8:20

(iii) प्रेरितों के काम 15:15; यूहन्ना 5:39

(iv) 1 कुरिन्थियों 14:6, 9, 11-12, 24, 28

(v) कुलुस्सियों 3:16

 

पैराग्राफ़ -9

(i) पवित्रशास्त्र की व्याख्या करने का अचूक नियम स्वयं पवित्रशास्त्र है। इसलिए जब पवित्रशास्त्र के किसी भी भाग के सही और पूर्ण अर्थ के बारे में कोई प्रश्न हो (और प्रत्येक बाइबल-अंश का केवल एक ही अर्थ है, बहुत सारे नहीं), तो इसे उन अन्य अंशों के प्रकाश में समझा जाना चाहिए जो अधिक स्पष्ट हैं।

(i) 2 पतरस 1:20, 21; प्रेरितों के काम 15:15, 16

 

पैराग्राफ़ -10

(i) सभी धार्मिक विवादों को सुलझाने और परिषदों के सभी निर्णयों, प्राचीन लेखकों के मतों, मानवीय शिक्षाओं, और व्यक्तिगत व्याख्याओं का मूल्यांकन करने के लिए सर्वोच्च न्यायाधीश और कोई नहीं बल्कि आत्मा द्वारा दिया गया पवित्र शास्त्र है, जिसके फैसले में हमें विश्राम करना चाहिए। पवित्रशास्त्र में ही हम हमारे विश्वास के लिए अपना अंतिम उत्तर पाते हैं।

(i) मत्ती 22:29, 31, 32; इफिसियों 2:20; प्रेरितों के काम 28:23

 

 

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